Ground Report: सेक्स ट्रैफिकिंग का अड्डा बना चिकन नेक, घरों से गायब हो रही बच्चियां, पुलिस रिकॉर्ड में जिक्र तक नहीं! – siliguri corridor chicken neck link to northeastern states and bhutan nepal bangladesh and cross border human trafficking ntcpmj


‘सिलीगुड़ी कभी सोता नहीं, ये बस झपकियां लेता है!’ जिस होटल में ठहरी थी, देर रात लौटने के अपने कन्सर्न पर वहां का मैनेजर कहता है. बात सच ही थी. सुबह के पांच बजे हों, या रात के बारह, सड़क हरदम चलती ही दिखी. जागते हुए इस शहर की भागती हुई सड़कें सिर्फ पर्यटकों के लिए नहीं. इन्हीं रास्तों से होकर बहुत सी बच्चियां हमेशा के लिए गायब हो जाती हैं. पश्चिम बंगाल का उत्तरी हिस्सा यानी सिलीगुड़ी कॉरिडोर आजकल सुरक्षा वजहों से सुर्खियों में है. लेकिन संवेदनशील बॉर्डर वाला ये इलाका बालिग-नाबालिग लड़कियों की कथित तस्करी का भी अड्डा बन चुका.

वजह कई हैं, इंटरनेशनल लेकिन धुले-खुले बॉर्डर. बंद होते चाय बागान. बढ़ता एक्सपोजर. या फिर दिल्ली से दूरी… ‘आज तक’ ने अपनी पड़ताल में इससे जुड़े हर पहलू को टटोला.
 
पिछले साल मुर्शिदाबाद के धुलियान शहर में गंगा घाट पर बहुत से टिन शेड घर दिखे. सामने गहरी लिपस्टिक लगाए महिलाएं बैठी हुईं. तीखी गर्मी में भी नकली रेशम के भड़कीले गाउन.

कई चांद पहले बांग्लादेश से जबरन लाई गई एक औरत कहती है- 14 या 15 लगा होगा, जब आई थी. अब पीठ कमान हुई जाती है. आंखें धुंधिया चुकीं, लेकिन घर वापसी नहीं हो सकती.
 
तो आप उधर (बांग्लादेश) जाती नहीं हैं?

जाते क्यों नहीं. नदी ही तो पार करनी है. जब जी चाहे, कर लेते हैं. त्योहारों में तो हर शाम ही जाते हैं लेकिन वहां कोई घर नहीं.
 
यहां घर-परिवार है आपका!

पैरों से रेत के ढेर को धकियाती महिला पलटकर पूछती है- ‘देखकर समझ नहीं रही कि हम क्या करती हैं, या जानबूझकर बन रही हो!’ आवाज ऐसी जैसे खाली कुएं से नाउम्मीदी का आखिरी बर्तन टकराए. मैं बिना कुछ पूछे-पाछे लौट आती हूं.

ये बात है, बीते साल मार्च के आखिर की. ठीक एक साल बाद हम दोबारा पश्चिम बंगाल में हैं. इस बार सिलीगुड़ी कॉरिडोर में. पूर्वोत्तर यानी आठ राज्यों को बाकी देश से जोड़ती ये संकरी डोर एक साथ कई देशों से घिरी हुई.

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पिछली किस्त में आपने पढ़ा कि इन देशों की सीमाओं से जुड़ा हमारा बॉर्डर कितना पोरस है. हजारों किलोमीटर की ये खुली सीमाएं जासूसों को ही नहीं न्योततीं, यहां से क्रॉस बॉर्डर मानव तस्करी भी होती रही. खासकर सेक्स ट्रैफिकिंग. 

पिछली कहानी यहां पूरी पढ़ें: चिकन नेक से Ground Report: 3 दिन में 3 देश…नेपाल और भूटान सीमा पर खुली आवाजाही, एजेंट बोला- जेब में हो टका तो बिना कागज पहुंचेंगे ढाका!
 
इसपर काम कर रहे NGO दावा करते हैं कि यहां सेक्स ट्रैफिकिंग और स्लेव ट्रैफिकिंग दोनों ही चल रहे हैं. नेपाल या नॉर्थ-ईस्ट की लड़कियां सेक्स तस्करी की शिकार बनती हैं, जबकि बंगाल में बसी आदिवासी बच्चियों को घरेलू कामकाम के लिए पकड़ा जाता है. इन सबके लिए ट्रांजिट पॉइंट बनता है- सिलीगुड़ी कॉरिडोर, जहां एयरपोर्ट भी है, सड़क का रास्ता भी और रेल ट्रांसपोर्ट भी.

जमीन के एक हिस्से से दूसरे को जोड़ने वाला ये ट्रांसपोर्ट बच्चियों को उनके परिवारों से दूर कर रहा है.

किस उम्र की बच्चियां?

पूछिए मत! ये तस्वीर देख रही हैं. अपने मोबाइल पर दो-तीन साल की एक बच्ची की फोटो दिखाती हुई रेशमा कहती हैं- दुधमुंही से लेकर 45 साल की औरत तक कोई भी नहीं छूट रही, सबके अलग-अलग इस्तेमाल हैं.
 
सिलिगुड़ी में टाइनी हैंड्स एनजीओ के साथ काम कर रही रेशमा दर्जी का मोबाइल ऐसी तस्वीरों और वीडियो से भरा हुआ है. माइनर लड़कियों को ट्रैप करने का तरीका अलग, और एडल्ट्स के लिए अलग टोटका.

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क्या आप इनमें से किसी से हमें मिला सकेंगी?

इनकार करते हुए रेशमा कहती हैं- ये लोग पहले से ही इतनी ट्रॉमेटाइज (सदमे में) होती हैं. बहुत मुश्किल से हम शांत कर पाते हैं. कई तो खुदकुशी कर लेती हैं, आप मिलेंगी तो पुराना घाव टीसने लगेगा.

सिलीगुड़ी तो नहीं, लेकिन टहक-टहककर बहते इन घावों को हमने जलपाईगुड़ी में छुआ…

और दार्जिलिंग में…

बागडोगरा में भी…

और गोरखालैंड टेरिटोरियल एडमिनिस्ट्रेशन में भी… ! 
 
स्कूल में पढ़ती एक बच्ची गायब हुई. 12 साल बाद भी छोटे-छोटे सफेद जूते उसके घर के छज्जे पर रखे हैं.
 
ये जूते क्यों रखे हुए हैं. इतने साल में तो बच्ची बड़ी हो चुकी होगी!

बेहद ठंडे सवाल के जवाब में आदिवासी परिवार टुकुर-टुकुर ताकता है. फिर जूते लेकर वापस वहीं सजा देता है.

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ये जलपाईगुड़ी का बागराकोट गांव है.

दूर से ही चाय की कच्ची-हरी महक नाक तक पहुंचने लगती है. पहाड़ी बागानों के बीच बसे गांव में आदिवासी आबादी 40 फीसदी से ज्यादा. स्कूलों से उतना ही नाता, जितना गरीबी का बकिंघम पैलेस से. एकाध दशक पहले लोगों ने अपने बच्चों को स्कूल भेजना शुरू किया.
 
अरुणिमा (नाम बदला हुआ) उसी बीते दशक की बच्ची है. स्कूल जाने-आने के बीच ही लड़की एक रोज गायब हो गई.

कहां गई, कुछ पता लगा?

नहीं. अरुणिमा की भाभी बताती हैं.

मैं जब शादी होकर आई, तब से बस इन लोगों के मुंह से ही उसकी बात सुनी है. कभी देखा भी नहीं. तब मोबाइल तो था, लेकिन वॉट्सएप वगैरह यहां कम चलता था. क्या हुआ, कभी कुछ समझ नहीं आया.

आप लोगों ने पुलिस में रिपोर्ट की?

नहीं कर सके, अनदेखी ननद के बारे में इस बार भी जवाब भाभी से मिला. ये लोग पहले सोचते रहे कि लौट आएगी. फिर दिन-महीने-साल बीत गए. उम्मीद गई तो डर आ गया. पुलिसवाले क्या कहेंगे. क्या करेंगे. हम बेपढ़ लोग, बागान में काम करके दिहाड़ी कमाते हैं. पुलिस के चक्कर लगाएं तो कहीं बचा-खुचा परिवार भी खत्म न हो जाए!
 
आस-पड़ोस के कई गांवों में यही हाल. एक गांव में बेटे के गायब होने के बाद सोग में माता-पिता भी खत्म हो गए. मचान की तर्ज पर बने टीन-शेड घर से अब छत गायब है. सीढ़ियां भी और वो तमाम साजोसामान भी, जो किसी बक्से को घर बनाते हैं.

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टूटे-उजड़े घर के पास दो बूढ़ी महिलाएं चाय की पत्तियां सकेलती हुईं.
 
इशारा करते हुए मेरे साथी आदिवासी भाषा में पूछते हैं – आपको पता है, यहां का बेटा कहां गया?
 
वो तो खप गया बालपन में ही! जवाब हिंदी में लौटता है.
 
बालपन में खप चुके उस बेटे का हाल में पता लग चुका है. वो दिल्ली-एनसीआर में कहीं बंधुआ मजदूरी कर रहा था. लौटाने की कवायद जारी है.
 
लड़का लौटेगा तो कहां रखा जाएगा?
 
उसकी शादीशुदा बड़ी बहन है. उनके घर पर बात हो चुकी. कुछ महीने वो रख लेंगे, तब तक पीड़ित संभल भी जाएगा. मेरे साथी बताते हैं.
 
कोई नाम या करियर नहीं…17 या 18 साल का लड़का न जानने वालों के लिए खपा हुआ है, और जानकारों के लिए पीड़ित!
 
हमारी गाड़ी गुजरती है तो लड़कियां एकदम से दुबक जाती हैं. साथ लेकर गए एनजीओ संचालक राजू नेपाली कहते हैं- यहां इतनी आदिवासी लड़कियां गायब हुईं कि बचे हुए लोग बाहर की गाड़ी या हर बाहरी आदमी से डरने लगे हैं.
 
राजू नेपाली डुआर्स एक्सप्रेस मेल एनजीओ के फाउंडर हैं और पश्चिम बंगाल के कई जिलों समेत सिक्किम और सातों पूर्वोत्तर राज्यों के लिए काम कर रहे हैं.

वे मानते हैं कि चिकन नेक की भौगोलिक स्थिति यहां की लड़कियों को मानव तस्करी के लिए काफी वल्नरेबल बना देती है. इसके अलावा नेपाल और बांग्लादेश से भी औरतें लगातार लाई जाती हैं. अब नया ट्रेंड है, जिसमें बागडोगरा एयरपोर्ट से चैन्नई, दिल्ली या बेंगलुरु होते हुए नाबालिग बच्चियों को अरब देशों में भी बेचा जा रहा है.

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कोई अनुमान कि हर महीने कितनी लड़कियां गायब होती हैं?

देखिए, पुलिस स्टेशन में हर रोज मिसिंग डायरी दर्ज होती है. कुछ केस सॉल्व हो जाते हैं, जबकि बहुत सी बच्चियों का कुछ पता नहीं लगता. तब हम मान लेते हैं कि वो मानव तस्करी का शिकार हो गई. बहुत बार परिवार अपनी बेटी के गायब होने की रिपोर्ट ही नहीं करते.
 
तस्करी का पैटर्न किस तरह का है?

लॉकडाउन से पहले और उसके बाद तस्करों ने कई नए तरीके खोजे. पहले वे एक साथ लॉट में लड़कियां ले जाते थे. मिडिलमैन खुद उनके साथ रहता था और मंजिल तक छोड़ता था. लेकिन इसमें पकड़े जाने का खतरा था. हमने एक साथ 16 लड़कियों को भी तस्करों से बचाया. लॉकडाउन से ऐन पहले झुंड की तस्करी रुकी और एक-एक करके बच्चियां गायब होने लगीं. अब वे और एडवांस हो चुके.
 
फिलहाल डिजिटल ट्रैफिकिंग चल रही है.

एजेंट नाबालिग लड़कियों से सोशल मीडिया के जरिए दोस्ती करता है. किसी को रिश्ते का लालच देता है, किसी को अच्छे काम का. फिर वो उनके लिए टिकट भी करा देता है. सब कुछ ऑनलाइन. लड़की खुद ही ट्रेन या बस में बैठकर तय जगह पर पहुंच जाएगी. वहां से उसे उठा लिया जाएगा, और फिर वो गायब हो जाएगी. पेरेंट्स भी नहीं समझ सकेंगे कि स्कूल के लिए निकली लड़की आखिर कहां अदमपत्ता हुई.
 
बिल्कुल यही बात सिलीगुड़ी में काम कर रही रेशमा दर्जी भी कहती हैं.

अब माइनर्स को फंसाने के लिए सोशल मीडिया का सहारा लिया जा रहा है. इसमें आइडेंटिटी छिपाना आसान होता है. अक्सर टीनएजर लड़कियों को टारगेट किया जाता है, जो ज्यादा वक्त घर पर अकेली रहती हों. उन्हें टटोला जाता है कि घर की इकनॉमिक कंडीशन कैसी है. पापा-भाई हैं क्या. अगर बच्ची गायब हुई तो वे किस हद तक जा सकते हैं. सारे सॉफ्ट पॉइंट खोजे जाते हैं, उसके बाद ही जाल बिछाया जाता है. कई बार हमने आठ-दस साल की बच्चियां पकड़ीं, जिनका ट्रैफिकर 40-50 साल का था.
 
लड़की को किसी ऐसी लोकेशन पर बुलाया जाता है, जहां से गाड़ी मिलना आसान न हो. ट्रैफिकर जान-बूझकर उसे भीड़ से दूर रखता है कि कहीं वो सुरक्षित हाथों न पहुंच जाए. देर शाम वो उसे रिसीव करने पहुंचेगा और फिर रात होटल में. इसी दौरान नशा देकर तस्वीरें ले ली जाती हैं. फिर लड़की अगर गलत काम से मना करे तो ब्लैकमेलिंग शुरू, छोटी लड़कियां तुरंत टूट जाती हैं.
 
अभी एक और ट्रेंड चला है- बिजनेस नेटवर्किंग. सिलीगुड़ी में कई एजेंसियां चल रही हैं, जो कम पैसों में स्किल ट्रेनिंग देने का वादा करती हैं, साथ ही अच्छी नौकरी दिलाने का भी. एक बार लड़की वहां पहुंच जाए तो गायब हो जाती है.
 
बकौल रेशमा, अकेले सिलीगुड़ी में ही एक-एक एनजीओ हर महीने ट्रैफिकिंग के कम से कम 23 केस डील करता है. कई बार इससे ज्यादा भी, लेकिन कम नहीं. 

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नॉर्थ ईस्टर्न लड़कियां ज्यादातर सेक्स ट्रैफिकिंग के लिए गायब की जा रही हैं.

नागालैंड, मिजोरम, अरुणाचल प्रदेश से लेकर त्रिपुरा और सिक्किम से नाबालिग लड़कियों थाई लड़कियां बताकर देश के बड़े शहरों में बेचा जा रहा है. उन्हें इतना डराया जाता है कि वे स्पा सेंटर या रेड लाइट एरिया में अपनी भाषा भी नहीं बोल पातीं. दो-चार थाई शब्द सिखा दिए जाते हैं ताकि क्लाइंट को भरोसा हो जाए. वो विदेशी सर्विस के ज्यादा पैसे देता है.
 
ट्रैफिकिंग का नेटवर्क कमोबेश सारी जगहों पर एक सा है.
 
राजू कहते हैं- मेन ट्रैफिकर यानी किंगपिन जिसे हम मास्टरमाइंड भी कह सकते हैं, वो कभी सामने नहीं आता. उसके नीचे कई लेवल होते हैं. सबसे नीचे होता है स्लीपर एजेंट. ये गांव का ही कोई शख्स होता है. वो नजर रखता है कि कौन सी लड़की ट्रैप हो सकती है, और कैसे. यही एजेंट लड़की को लोकल एरिया से निकालता है.

आगे दूसरे एजेंट मामला संभाल लेते हैं और बड़े शहर में एक खास पॉइंट तक उसे छोड़ते हैं. इसके बाद मैनेजर होते हैं, जो तय करते हैं कि किसका क्या इस्तेमाल हो सकता है. इसमें कई बार औरतें भी होती हैं, जो स्लीपर एजेंट के साथ मिलकर काम करती हैं ताकि बच्ची को भरोसा रहे कि वो सेफ है.
 
हमारा अगला पड़ाव था- गोरखालैंड टेरिटोरियल एडमिनिस्ट्रेशन (जीटीए) का पानीघाटा चाय बागान. ये टी गार्डन साल 2015 से बंद पड़ा है. इन दस सालों में पानीघाटा के परिवार एक पूरी कयामत जी चुके. गांवों की औरतें-लड़कियां बाहर जाने लगीं.
 
कहां?

बागान में कर्मचारी रह चुके किशोर प्रधान कहते हैं- वो तो हमें नहीं पता. सबकुछ गुपचुप होता है. कौन ले जाता है, कहां और क्या काम करती हैं, कुछ पता नहीं. गांववालों को इसका पता तब चलता है, जब कुछ बड़ा हो जाए. जैसे कोविड के वक्त ही हमें पहली बार अंदाजा हुआ कि करीब-करीब आधा गांव बाहर जाकर गायब हो चुका है.

इन सालों में बहुत सी महिलाएं चली गईं. कुछ दूध पीते बच्चों को मां-बाप के भरोसे छोड़कर गईं. वो गोद का बच्चा अब खुद पिता बनने की उम्र में आ रहा है. उसके पास मां के नाम पर शायद एकाध तस्वीर है, या वो भी नहीं.
 
चाय बागान बंद क्या हुआ, हमारी किस्मतों की भी तालाबंदी हो गई. अब उसे ही खुलवाने के लिए हम लोग अनशन पर बैठे हैं.

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दिल्ली से आए पत्रकार के नाम पर पानीघाटा में भीड़ जमा हो चुकी थी. नाम-चेहरे अलग, लेकिन कहानियां और उनका अंत एक. गरीबी, गुमशुदगी और इंतजार!
 
पानीघाटा ही नहीं, पश्चिम बंगाल में इस उत्तरी इलाके में बहुत से चाय बागान बंद हो रहे हैं. कई बार ऐसा भी हुआ कि सुबह उठकर बागान पहुंचे लोगों ने एक नोटिस चिपका देखा कि आज से काम बंद. रातभर चलती फैक्ट्रियों पर मोटे ताले. मैनेजर का घर खाली.
 
किशोर याद करते हैं- हमने, हमारे पुरखों ने सारी जिंदगी यहीं झोंक दी. यही काम हमारी पहचान. औरतें पत्तियां तोड़तीं और हम फैक्ट्री में चाय पत्तियां बनाते. हाथों से लेकर दिमागों तक की वायरिंग हो चुकी थी. अब क्या करें!
 
दरम्यानी उम्र के किशोर तंगी के बीच सामाजिक कार्यकर्ता-नुमा कुछ बन चुके. वे एक-एक करके कई चेहरों से मिलवाते हैं, जिनकी कहानियों का खलनायक चाय बागान का ताला है.

करीब 23 बरस की एक लड़की दिल्ली और नेपाल के फेरे करके लौट चुकी. गोद में चार साल का बच्चा लिए. अब उसका सपना ही बाबू (बेटे) को बड़े स्कूल में डालना है. वो बार-बार कहती है- दिल्ली जाकर मेरी बात पहुंचा दो दीदी. गार्डन खुल जाएगा तो हम भी जिला जाएंगे (जी उठेंगे).
 
गाड़ी में बैठ ही रहे थे कि एक पुकार आती है. पनियाई आंखों वाला एक बुजुर्ग कपल अकेले में बात करना चाहता है, जिनकी बेटी लगभग दशक भर पहले गायब हो गई.

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कहां गई?
 
दिल्ली. या गुड़गांव. वे एक सांस में कई नाम गिनाते हैं.
 
पुलिस में रिपोर्ट की?
 
नहीं.
 
क्यों?
 
सोचते थे कि लौट आएगी. फिर जैसे-जैसे वक्त निकला, हम और डरने लगे.
 
क्या लगता है, जिंदा होगी! ठिठकते हुए पूछ ही लेती हूं.
 
अबकी बार जवाब मां देती हैं- हां, थोड़े समय पहले किसी ने बताया था कि फेसबुक पर वो दिखी थी.
 
फेसबुक! आपके पास उसकी फोटो है!
 
फोटो तो नहीं है. लेकिन किसी ने बताया कि उसके जैसे चेहरे वाली लड़की दिखी थी.
 
हमारा एक नाती भी है. गोद का बच्चा छोड़कर लापता हुई. अब वो 15 साल का हो गया. इस उम्र में हम नदी में रेत निकालते हैं. अभी गर्मी बढ़ेगी तो आंखों में सीसा भर जाएगा. पैर चलने लायक नहीं रहते लेकिन काम करना पड़ता है. वो लौट आए तो हमारी सांस आए.
 
बिना किसी तस्वीर या बगैर पुलिस रिपोर्ट के अपनी बेटी को तलाश रही मां के कंधे पर अब भी टी प्लकिंग बैग लटका हुआ.

वेस्ट बंगाल के उत्तरी हिस्से यानी दुआर्स (जलपाईगुड़ी, अलीपुरद्वार और कोकराझार), तराई और दार्जिलिंग में बीते एक दशक में लगातार टी गार्डन्स बंद हो रहे हैं. बहुतों के मालिक घाटे के हवाले से अचानक बागान बंद करके गायब हो जाते हैं.

साल 2023 में 16 बागानों पर ताला पड़ा, जिनमें से 8 दार्जिलिंग, 3 जलपाईगुड़ी और 5 अलीपुरद्वार में थे. पूरी तरह से इसी के भरोसे चलते परिवार बंदी के बाद बेहद तंगी में आ जाते हैं.
 
यही वो मौका है, जिसका स्लीपर एजेंट इंतजार करते होते हैं. वे फटाक से ऐसे परिवारों या फिर लड़कियों को टारगेट करते हैं. इसके अलावा, बड़ी संख्या में लोग माइग्रेट भी करने लगते हैं, जिससे भी तस्करी बढ़ती है.

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सिलीगुड़ी कॉरिडोर का संकरापन और इससे इंटरनेशनल सीमाओं का सटना क्रॉस-बॉर्डर तस्करी की भी काफी गुंजाइश देता है.
 
पहली किस्त में हम बता चुके कि भारत-नेपाल की सीमा पार करते ही एक साथ पांच एनजीओ के शेल्टर दिख जाएंगे. ‘चेलीबेटी बेचबिकन अपराध हो!’ जैसे पोस्टर चारों ओर लगे हुए.

यहां से हम गोविंद घिमिरे के पास पहुंचते हैं, जो इंडो-नेपाल ह्यूमन ट्रैफिकिंग पर काम कर रही संस्था माइती नेपाल के अधिकारी हैं.
 
नेपाली जानने वाले गोविंद काफी मुश्किल से हिंदी-अंग्रेजी मिलाकर बात करने को राजी होते हैं. वे कहते हैं- नेपाल से छोटी-छोटी लड़कियों को उठाकर दिल्ली, मुंबई और कोलकाता में बेचा जा रहा है. उम्र के अनुसार अलग-अलग कीमत. ये पहाड़ी इलाका है. काम कम है और उसपर भी अक्सर कोई न कोई कुदरती आपदा आ जाती है. इसके बाद लड़कियां काफी तेजी से गायब होती हैं.

काकरभिट्टा से पानीटंकी (नेपाल से भारत की सीमा) होते हुए उन्हें मैट्रो में ही नहीं बेचा जाता, बल्कि बाहर भी भेजा जा रहा है. सिलीगुड़ी कॉरिडोर से होते हुए वे दूसरे देश चली जाती हैं, और फिर वहां से सीधे गल्फ. बाहर इनकी कीमत सीधे 10 से 40 लाख तक पहुंच जाती है.
 
लेकिन इन लड़कियों का दस्तावेज कैसे बनता है?

ज्यादातर माइनर होती हैं, भारत ले जाकर पहले उनका आधार बनता है, और फिर पासपोर्ट बन जाता है. 

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30 साल से भी ज्यादा वक्त से इसी मुद्दे पर काम कर रही संस्था के अधिकारी से जब हम डेटा मांगते हैं, वे मना कर देते हैं.

आप इंडिया से हैं, हम नेपाल से. डेटा है तो लेकिन ऐसे नहीं दे सकते. इसके लिए बाकायदा लिखापढ़ी होगी. वैसे भी कुछ घटा-बढ़ा तो सीधे इंटरनेशनल मुद्दा बन जाएगा.

सिलीगुड़ी पुलिस कमिश्नरेट में सहायक पुलिस आयुक्त (एसीपी) फारूख मोहम्मद चौधरी मानव तस्करी रोकने पर भी काम कर रहे हैं.

फोन पर हुई बातचीत में वे इनकार करते हैं कि सिलीगुड़ी में ट्रैफिकिंग इतनी बढ़ी-चढ़ी है. तस्करी का आखिरी केस हमें पिछले साल मिला था, इसके बाद से कोई मामला नहीं आया.
 
तब एनजीओ वाले ऐसे दावे क्यों कर रहे?

उससे क्या होता है. अगर बच्ची खोएगी तो केस भी तो रजिस्टर होना चाहिए! हम तस्करी रोकने पर खुद लगातार काम कर रहे हैं. एयरपोर्ट, बस स्टैंड, रेलवे स्टेशन- हर जगह मूवमेंट करते हैं. रेंडम चेकिंग होती है और कुछ ही अलग लगे तो डिटेल में बात करते हैं.
 
एक तरफ पुलिस अधिकारी तस्करी के मामलों के घटने की बात करते हैं, दूसरी तरफ बात ही बात में खुद ही प्लेसमेंट एजेंसियों का जिक्र कर जाते हैं.

वे कहते हैं- हम हर महीने प्लेसमेंट एजेंसियों से मीटिंग करते हैं. उनसे डेटा लेते हैं कि कितनों को ट्रेनिंग या काम दिलवाया. इन लोगों के नंबर पर कॉल करते हैं. ये सैंपल टेस्ट है. इसी में काफी कुछ पता लग जाता है. कई वेबसाइट्स पर भी पुलिस ने फेक प्रोफाइल बना रखी है ताकि फर्जी एजेंसियों पर नजर रख सकें. कुल मिलाकर, हमारी मूवमेंट इतनी ज्यादा हो चुकी कि तस्करों का सिलीगुड़ी से बचकर निकलना मुश्किल है.
 
क्या नेपाल से भी लड़कियां यहां आ रही हैं?

वो हमारे हाथ में नहीं. ये काम एसएसबी देखती है. उसी के पास सारा रिकॉर्ड रहता है.

प्रशासनिक रिकॉर्ड में सब कुछ चाक-चौबंद है. रिपोर्ट नहीं, तो हादसा नहीं. इस बीच मुझे पानी घाटा का बुजुर्ग जोड़ा याद आता है. टी गार्डन पर तालाबंदी के दसियों साल बाद भी चाय पत्ती तोड़ने का थैला लटकाए हुए. और बेटी खोने के सालों बाद भी बिना रपट लिखाए उसे खोजता हुआ.

दिल्ली से पत्रकारों का आना शायद उनकी बंद उम्मीदों की अकेली खिड़की हो!

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